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क्या है ब्रह्मचर्य :आयुर्वेद के नजरिये से!

आयुष दर्पण
आयुष दर्पण
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तीन स्तम्भों पर टिका हुआ माना गया है,जिसके लिए
त्रितय चेदमुपष्टम्भनमाहार : स्वप्नोs ब्रह्मचर्यं च। एभियुर्क्तियुक्तैरूपष्टब्ध मुपस्तम्भै: शरीरं बलवर्णोंपचयो
पचितमनुवर्तते यावादायुष: संस्कार:।।
अष्टांग संग्रह सू.9/36
अर्थात आहार स्वप्न(नींद)एवं (अ)ब्रह्मचर्य द्वारा युक्तिपूर्वक इन स्तंभों पर शरीर के टिके होने की बात बतायी गयी है।
आचार्य चरक ने इसे और भी स्पष्ट करते हुये कहा है त्रय उपस्त्मभा:- आहार स्वप्नो,ब्रह्मचर्यमिती।
सन्दर्भ:चरक संहिता सूत्र स्थान :11/32
दोनों ही सन्दर्भों से इतना तो स्पष्ट है की युक्तिपूर्वक अब्रह्मचर्य-ब्रह्म्चर्य जिसे सम्यक या संयमित अब्रह्म्चर्य एवं ब्रह्मचर्य समझा जा सकता है के बीच संतुलन को आवश्यक माना गया है।
अब आपके मन में यह प्रश्न आ रहा होगा की भई आहार और नींद तो समझ में आ गया पर ये ब्रह्मचर्य-अब्रह्म्चर्य क्या बला है?
आईये अब ब्रह्मचर्य को आयुर्वेद के शास्त्रीय नजरिये से समझने का प्रयास करते हैं।गृहस्ताश्रम में रहकर युक्तिपूर्वक संयमित होकर सहवास को संतानोत्पत्ति हेतु आवश्यक माना गया है,सीधे शब्दों में कहा जाय तो संतानुत्पत्ति की कामना से किया गया संसर्ग अब्रह्मचर्य के अंतर्गत आता है और यह आवश्यक माना गया है। यानि जीवन की गाडी को सही तरीके से चलाने के लिये दोनों ही में संतुलन(ब्रह्मचर्य एवं अब्रह्म्चर्य के मध्य संतुलन) आवश्यक है।अर्थात मर्यादाओं की सीमा में शारीरिक आवश्यतानुसार किया गया सेक्स (अब्रह्म्चर्य) भी उतना ही आवश्यक है जितना की ब्रह्मचर्य।
आगे कहा गया है कि
कायस्य तेजः परमं हि शुक्रंमाहारसा दपि सारभूतं।
जित्तात्मना तत्परिरक्षणीयं ततो वपु :
संतातिरप्युदरा।।
सन्दर्भ: अष्टांग सं.सू.9/84
अर्थ है की शरीर का उत्कृष्ट तेज शुक्र है और यह आहार रस आदि का सारभूत है ।जितात्मा बनकर हमें इसकी रक्षा करनी चाहिये जिससे शरीर एवं संतान उत्कृष्ट उत्पन्न हो ।
‘ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाप्घ्नत:’
सन्दर्भ:वेद
अर्थ है ब्रह्मचर्य रूपी तप से देवताओं ने अमरत्व को प्राप्त किया।
पुनः आचार्य चक्रपाणी ने
‘ब्रह्मचर्य शब्देन इन्द्रिय संयमसौमनस्यप्रभृत यो ब्रह्मज्ञानानुगुणा गृह्यन्ते’
अर्थात इन्द्रियों को संयमित रखना साथ ही ब्रह्मज्ञान के अनुकूल गुणों को ग्रहण करना ही ब्रह्मचर्य माना है।
कहा गया है:
स्मरणं कीर्तनं केली: प्रेक्षण म गुह्यभाषणम ।
संकल्पोsध्यव्सायश्च क्रिया निवृतिरेव च।।
ए तन्मैथुनम्ष्टांग प्रवदन्ति मनीषीणः।
अप्रमतो भजेद भावांस्तदात्वसुख संज्ञकान।
सुखोदकर्षे सज्जेत देहस्यतदलं हितम।
सन्दर्भ:अष्टांग संग्रह सू.9/85
शुक्र की रक्षा हेतु व्यक्ति को अष्टमैथुन अर्थात मैथुन का स्मरण,कीर्तन-केलि,प्रेक्षण और गुह्यभाषण करने से बचना चाहिए ,संकल्प सहित अध्यवसाय एवं उपरोक्त क्रिया से निवृत रहना भी आवश्यक है,आगे यह भी कहा गया है कि तत्काल शारीरिक एवं मानसिक सुख के लिये आहार निद्रा एवं मैथुन का सेवन सदा सावधानी से करना चाहिये एवं अच्छे परिणाम देनेवाले पदार्थों का सम्यक रूप से आश्रय लेना चाहिये।
इसके अलावा शास्त्रों में मैथुन के योग्य ,अयोग्य,मैथुन विधि,मैथुन की मात्रा,अतिमैथुन के दुष्प्रभाव इससे उत्पन्न रोग आदि का विस्तृत वर्णन किया है जिसकी चर्चा कभी और करेंगे ,सीधा निचोड़ है की मैथुन को आहार,नींद की भाँती सम्यक रूप से उद्देश्य प्राप्ति हेतु से किये जाने को ही अब्रह्म्चर्य के रूप में भी निर्देशित किया गया है। स्पष्ट अर्थों में यह कहा जा सकता है की गृह्स्ताश्रम में ब्रह्मचर्य एवं अब्रह्म्चर्य दोनों का ही परिपालन आवश्यक है।आयुर्वेद में कहीं भी समलैंगिक संबंधों को ब्रह्मचर्य या अब्रह्मचर्य से नहीं जोड़ा गया है अतः इसको किसी भी प्रकार से गे या लेसबीयन संबंधों से जोड़ना महज उपहास का पात्र बनना है।
*सभी सन्दर्भ आयुर्वेद के शास्त्रों से लिये गये हैं जिससे व्यक्ति विशेष असहमत या सहमत होने के लिये स्वतंत्र है। कुछ विचार मेरे निजी हो सकते हैं जिनसे सहमत होना या न होना आवश्यक है आप अपने विचारों को अपनी प्रतिक्रिया के माध्यम से पोस्ट कर सकते हैं जिनका स्वागत है।

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